Saturday, 25 August 2012

It was April 5th 2002


I wrote this poem on 5th April 2002. The year which I gave my 12th board exams. I was not sure about my future. I knew that I will not score well in my board exams, did not knew how I will fulfil my dad's dreams, My dreams...Lot of chaos in my mind...I wrote this poem.  



ये राहे जाने कहाँ मुझे ले जाएँ
शायद गुमनामी के वीरनो मे, या अंधेरी उजाड़ बियबानो मे
शायद मेरे सपनो की दुनिया, आगे चल मेरा सच हो जाएँ
जाने कहाँ हैं एक राहों का छोर, जाने चला जा रहा हू मैं किस ओर
चाहत हैं रोशनी, जगमगाते, झिलमिलाते
तारों को छूने की चाह थी
क्या मिलेगी मुझे वो, मेरी मंज़िल
जिसकी कल्पना मे जाने कितनी रात जगा, रात दिन देखे बिना सिर्फ़ उसकी ओर भागा
बंद पलकों मे या खुली आँखों से, जिसे हमेशा निहारता था
जिसकी एक झलक मात्र को, लाँघे अगणित समंदर
और शायद पार कर जाऊं, अनेको अनेक पर्वत शिखर
उन गलियों से भी गुज़ारा, जहाँ हर कदम काँटे चुबहे
साथी तो कई मिले
साथी तो कई मिले, अच्छे बुरे जो साथ चले
जिनकी आगोश मे एक पल को, भुला बैठा अपने दर्द को, गम को,
पर मैं अकेला था हमेशा हर कदम, ये वक़्त जो नित नये गम
भूल गया उनको पीछे छोड़ आया हू, अपने प्यारों से मूह मोड़ आया हू
साथी तो कई मिलेंगे
साथी तो कई मिलेंगे, अच्छे बुरे जो साथ चलेंगे
और यदि रह जाऊं भी मैं अकेला, शायद मुझे कोई गम ना होगा
गर वो मेरे साथ होगी
गर वो मेरे साथ होगी, मेरी मंज़िल
जिसके स्वर्णिम मुख को देखने मैं चला था, चाहत मैं जिसकी पाने को मैं पाला था
जिसके ख़यालों मे ये राह चुनी थी, जिस सुंदरी की कल्पना की थी
चलता रहा हू, चलता ही रहूँगा, ज़िंदगी की शाम होने तक बढ़ता ही रहूँगा
चाहे फूल मिले या पत्थर, चाहे खुशी मिले या चुबहे नश्तर
पर राह ये जो मैने चुनी हैं
जिस सुंदरी की कल्पना की हैं
मंज़िल चला हू जिसे मान कर
रुकुंगा तभी जब थाम लू उसके कर.

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